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जलवायु अनुकूल कृषि को बढ़ावा

स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट का सारांश

  • कृषि, पशुपालन और खाद्य प्रसंस्करण संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (चेयर: श्री पी.सी. गद्दीगौदर) ने 7 फरवरी, 2024 को 'जलवायु अनुकूल कृषि को बढ़ावा' पर अपनी रिपोर्ट पेश की। जलवायु परिवर्तन फसलों की पैदावार और कृषि उत्पादकता को नुकसान पहुंचाता है। अगर जलवायु परिवर्तन को अपने अनुकूल करने के लिए संस्थागत और नीतिगत सहयोग प्रदान किया जाए तो उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है। कमिटी के मुख्य निष्कर्षों और सुझावों में निम्नलिखित शामिल हैं:
  • संभावित प्रभाव और शमन के उपाय: विकासशील देश जलवायु संबंधी जोखिमों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं क्योंकि वे कृषि पर निर्भर हैं, और जोखिम को प्रबंधित करने के लिए उनके पास आवश्यक तकनीकों का अभाव है। शमन और अनुकूलन के उपायों के बिना, गरीब किसान कम आय, उच्च ऋण और गरीबी के चक्र में फंसे रह जाते हैं। इन प्रतिकूल प्रभावों को तकनीकी प्रगति, मौसम विज्ञान और डेटा विज्ञान जैसे एकीकृत दृष्टिकोण के माध्यम से कम किया जा सकता है। कमिटी ने सुझाव दिया कि किसानों को जलवायु और मौसम संबंधी विपदा से बचाने के लिए सभी जोखिम संभावित गांवों में नेशनल इनोवेशन इन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) योजना लागू की जानी चाहिए। एनआईसीआरए एक ऐसी परियोजना है जिसे 2011 में शुरू किया गया था, और इसका उद्देश्य रणनीतिक अनुसंधान के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के प्रति भारतीय कृषि के लचीलापन को बढ़ाना है।
  • फसल विविधीकरण: फसलों का विविधीकरण कृषि संबंधी इको सिस्टम को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने में सक्षम बनाता है। हालांकि कमिटी ने कहा कि वर्तमान सार्वजनिक नीतियां और विकास संबंधी पहल फसलों में विविधता लाने के लिए पर्याप्त मदद नहीं करतीं। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के अलावा, फसल विविधता खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने, कीटों को नियंत्रित करने और उपज स्थिरता में भी मदद करती है। कमिटी ने सुझाव दिया कि कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय इसे हासिल करने के लिए किसानों को हर संभव सहायता प्रदान करे।
  • जल संरक्षण: जल संसाधन का प्रबंधन सतत कृषि की मुख्य विशेषता है। कमिटी ने कहा कि सिंचाई इंफ्रास्ट्रक्चर को उन्नत करने की जरूरत है, खासकर उत्तर पश्चिम भारत में। यह देश का फूड बास्केट है और जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले सूखे से प्रभावित है। कमिटी ने यह भी कहा कि ड्रिप सिंचाई वर्तमान में केवल उच्च मूल्य वाली बागवानी फसलों के लिए अपनाई जाती है। उसने सुझाव दिया कि सरकार भूजल निकासी के लिए बिजली सबसिडी पर काफी सोच-समझकर फैसला करे। कमिटी ने कहा कि भूजल के स्तर में गिरावट के कई कारण हैं, लेकिन सबसिडी उसकी एक बड़ी वजह है। उसने सुझाव दिया कि ऐसे एल्गोरिदम का उपयोग किया जाना चाहिए जो सिंचाई के शेड्यूल को अनुकूलित करते हैं, जल संरक्षण करते हैं और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करते हैं।
  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए ऑर्गेनिक खेती: देश के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का योगदान लगभग 14% है। सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरकों के उपयोग से नाइट्रस ऑक्साइड का काफी उत्सर्जन होता है। कमिटी ने कहा कि ऑर्गेनिक खेती से ग्रीनहाउस गैसें कम उत्सर्जित होती हैं। ऑर्गेनिक खेती में खनिज नाइट्रोजन का इस्तेमाल नहीं किया जाता इसलिए नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन कम होता है। कमिटी ने सुझाव दिया कि मंत्रालय ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करे ताकि  किसान भी जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढल सकें।
  • कृषि विज्ञान केंद्रों में सुधार: कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) कृषि तकनीक के नॉलेज और रिसोर्स सेंटर्स के तौर पर काम करते हैं। कमिटी ने कहा कि किसानों के जीवन स्तर को सुधारने में इनकी बड़ी भूमिका है। उसने कहा कि केवीके की ढांचागत और तकनीकी सुविधाओं में सुधार की जरूरत है। उदाहरण के लिए उन्हें 24x7 और स्थानीय भाषाओं में जानकारी प्रदान करने के लिए नए तकनीकी प्रयोगों का उपयोग करना चाहिए। कमिटी ने कहा कि ये बदलाव मौजूदा केवीके को नया स्वरूप देंगे और उन्हें जलवायु संबंधी चुनौतियों से निपटने में सक्षम बनाएंगे।
  • खाद्य और पोषण संबंधी सुरक्षा: अपर्याप्त उत्पादकता भारतीय कृषि की एक बड़ी चुनौती रही है। खाद्य और पोषण सुरक्षा भारत का एक मुख्य मुद्दा है और उसे निरंतर बरकरार रखना भी एक चुनौती है। कमिटी ने कहा कि जलवायु अनुकूल फसलों की किस्मों को आगे बढ़ाने और उनका प्रसार करने के लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की जरूरत है। ये फसलें तापमान और वर्षा के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक सहनशील होंगी और अधिक कुशल तरीके से पानी और पोषक तत्वों का उपयोग करेंगी। कमिटी ने सुझाव दिया कि कृषि नीति को फसल उत्पादकता में सुधार को प्राथमिकता देनी चाहिए और ऐसे सुरक्षात्मक उपाय करने चाहिए जोकि जलवायु परिवर्तनों के कारण होने वाले जोखिमों के साथ तालमेल बैठा सकें।
  • जलवायु परिवर्तन का राजनैतिक पहलू: कमिटी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन संबंधी नीति का सबसे चुनौतीपूर्ण राजनैतिक पहलू यह है कि ग्राम पंचायतें और स्थानीय स्वशासी निकाय इनको पर्याप्त मान्यता नहीं देते। कमिटी ने कहा कि उच्च सरकारी स्तर पर किए गए प्रयास सुफल नहीं देंगे, अगर गांव के सरपंचों को व्यापक विकास रणनीति के लिहाज से जलवायु संबंधी लक्ष्यों के बारे में जागरूक न किया जाए। चूंकि पंचायतें कई सरकारी योजनाओं की धनराशि का लाभ उठा सकती हैं, इसलिए उस स्तर पर जागरूकता फायदेमंद होगी। उदाहरण के लिए, योजना निधि का उपयोग मिट्टी और जल प्रबंधन या जलाशयों के निर्माण के लिए किया जा सकता है। सर्वोत्तम जलवायु अनुकूल पद्धतियों को अपनाने वाले गांवों के लिए राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर एक रैंकिंग प्रणाली शुरू करने से ऐसी पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन मिल सकता है।

 

अस्वीकरणः प्रस्तुत रिपोर्ट आपके समक्ष सूचना प्रदान करने के लिए प्रस्तुत की गई है। पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च (“पीआरएस”) के नाम उल्लेख के साथ इस रिपोर्ट का पूर्ण रूपेण या आंशिक रूप से गैर व्यावसायिक उद्देश्य के लिए पुनःप्रयोग या पुनर्वितरण किया जा सकता है। रिपोर्ट में प्रस्तुत विचार के लिए अंततः लेखक या लेखिका उत्तरदायी हैं। यद्यपि पीआरएस विश्वसनीय और व्यापक सूचना का प्रयोग करने का हर संभव प्रयास करता है किंतु पीआरएस दावा नहीं करता कि प्रस्तुत रिपोर्ट की सामग्री सही या पूर्ण है। पीआरएस एक स्वतंत्र, अलाभकारी समूह है। रिपोर्ट को इसे प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के उद्देश्यों अथवा विचारों से निरपेक्ष होकर तैयार किया गया है। यह सारांश मूल रूप से अंग्रेजी में तैयार किया गया था। हिंदी रूपांतरण में किसी भी प्रकार की अस्पष्टता की स्थिति में अंग्रेजी के मूल सारांश से इसकी पुष्टि की जा सकती है।

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